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Big Breaking: आरक्षण का लाभ लेने के लिए महिला ने बदला धर्म, तो सुप्रीम कोर्ट ने लगाई फटकार, सुनाया ये फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने धर्म बदलने वाली ईसाई महिला के मामले पर फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा, यदि कोई व्यक्ति रोजगार में आरक्षण का लाभ उठाने के लिए बिना किसी आस्था के धर्म परिवर्तित करता है तो यह आरक्षण की नीति की समाजिक भावना के खिलाफ होगा। ऐसे कार्यों को “संविधान के साथ धोखाधड़ी” कहा जाता है।

संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत किसी धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने के मौलिक अधिकार को स्वीकार करते हुए, न्यायमूर्ति पंकज मिथल और आर महादेवन की पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि वास्तविक धर्मांतरण सच्चे विश्वास से प्रेरित होते हैं, न कि गुप्त उद्देश्यों से।

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महिला को अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र देने से किया था इनकार

कोर्ट ने मद्रास हाई कोर्ट के आदेश को बरकरार रखते हुए एक महिला को अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र देने से इनकार कर दिया। यह फैसला तब आया जब पीठ ने मद्रास हाई कोर्ट के उस फैसले को बरकरार रखा, जिसमें एक महिला को अनुसूचित जाति (एससी) समुदाय प्रमाणपत्र देने से इनकार कर दिया गया था, जो जन्म से ईसाई थी और ईसाई धर्म का पालन करती थी, लेकिन बाद में आरक्षण लाभ के लिए अपनी हिंदू पहचान को पुनः प्राप्त करने की मांग की थी।

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जस्टिस पंकज मिथल और आर महादेवन की पीठ ने इस मामले पर सुनवाई की। उन्होंने अपने फैसले में कहा, इस मामले में प्रस्तुत सबूत से पता चला कि अपीलकर्ता ईसाई धर्म का पालन करती है और रोज चर्च जाती हैं। इससे साफ स्पष्ट होता है कि केवल रोजगार में आरक्षण का लाभ उठाने के उद्देश्य से हिंदू धर्म अपनाने का दावा करती है, उनकी ये हरकत आरक्षण के मूल उद्देश्य के खिलाफ है और ये संविधान के साथ धोखाधड़ी है।

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आदेश 1964 का भी हुआ जिक्र

पीठ ने संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1964 का भी उल्लेख किया, जो हिंदू धर्म, सिख धर्म या बौद्ध धर्म का पालन करने वाले व्यक्तियों तक एससी का दर्जा सीमित करता है। इसमें कहा गया है कि धर्मांतरण के बाद हिंदू धर्म में वापसी के दावों को सार्वजनिक घोषणा या निर्धारित रूपांतरण अनुष्ठानों के पालन जैसे ठोस सबूतों द्वारा प्रमाणित किया जाना चाहिए।

स्रोत im

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