जन मुद्दे
(अजब-गजब) एक महीने से जेल में रहने के बावजूद भी मंत्री पद पर बने हैं ये नेता, राज्यपाल भी नहीं कर सकते बर्खास्त…..
नई दिल्ली। महाराष्ट्र के मंत्री नवाब मलिक करीब एक महीने से जेल में हैं। दाऊद इब्राहिम से लिंक के आरोपों में पहले वे ईडी की हिरासत में थे और अब न्यायिक हिरासत में हैं। नवाब मलिक ने जेल में होने के बावजूद ना तो मंत्री पद से इस्तीफा दिया और ना ही मुख्यमंत्री ऊद्धव ठाकरे ने उनसे इस्तीफा मांगा है। सूबे के सत्ताधारी गठबंधन ने घोषणा की है कि वह मलिक से इस्तीफा नहीं मांगेगा क्योंकि उन पर लगे आरोप राजनीति से प्रेरित हैं। दलीलें कुछ भी हों बड़ा सवाल यह है कि क्या कोई व्यक्ति जेल जाने के बाद भी मंत्री बना रह सकता है।
नियम कानूनों की शून्यता का उठा रहे फायदा
ऐसा क्या है कि नवाब मलिक एक महीने से जेल में होने के बावजूद मंत्री पद पर काबिज हैं और सत्ताधारी दल सीना ठोंक कर उनकी तरफदारी कर रहा है। विशेषज्ञों की मानें तो इसके पीछे नियम कानूनों की शून्यता है। जेल में बंद दागी मंत्री को पद से हटाने के बारे में कानून मौन है। इस बारे में ना तो कोई कानून है और ना ही कंडेक्ट रूल में कुछ कहा गया है। यह ग्रे एरिया है जिसका लाभ नवाब मलिक को मिल रहा है।
कानून में कोई प्रविधान नहीं
देखा जाए तो एक सरकारी कर्मचारी अगर दो चार दिन जेल में रहता है तो वह निलंबित हो जाता है लेकिन एक मंत्री करीब एक महीने से जेल में होने के बावजूद पद पर काबिज है। इस अजीब संवैधानिक स्थिति पर लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीपी आचारी कहते हैं कि इस बारे में कोई कानून या नियम नहीं हैं। सरकारी कमर्चारी के बारे में कंडक्ट रूल में है कि जेल जाने पर वह निलंबित रहेगा लेकिन मंत्री के जेल जाने पर उसे पद से इस्तीफा देना होगा या वह पद से हटा दिया जाएगा कानून में ऐसी कोई बात नहीं कही गई है।
…या तो कानून बने या फिर अदालत व्यवस्था दे
आचारी का मानना है कि इस संबंध में स्पष्टता आनी चाहिए और सुप्रीम कोर्ट को यह मुद्दा तय करना चाहिए। देखा जाए तो इस स्थिति से निबटने के दो ही तरीके हैं या तो कानून बने या फिर अदालत व्यवस्था दे। कोर्ट किसी मुद्दे को तब तक परिभाषित नहीं करता या व्यवस्था नहीं देता है जब तक उसके सामने कोई मामला नहीं आता है। ऐसे मामलों में कोर्ट स्वत: संज्ञान लेकर व्यवस्था नहीं देता।
क्या राजनेता होंगे एकजुट
दूसरा तरीका है कि विधायिका ही इस पर नियम कानून बनाए लेकिन सवाल है कि सियासी निहितार्थ के ऐसे मुद्दे पर क्या राजनेता एकजुट होंगे। लोकसभा के पूर्व महासचिव संविधानविद सुभाष कश्यप भी मानते हैं कि इस पर स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए और जेल गए मंत्री को पद पर रहना चाहिए या नहीं यह बात कम से कम कोड आफ कंडक्ट में आनी चाहिए। मौजूदा कानूनी स्थिति यह है कि जब तक अदालत से किसी को दोषी नहीं ठहराया जाता तब तक वह निर्दोष माना जाता है।
यह तो नैतिकता का विषय है जनाब
सुभाष कश्यप के मुताबिक मौजूदा कानून में अंडर ट्रायल के तौर पर जेल मे रहते हुए मंत्री के रहने पर रोक नहीं है। ये नैतिकता का विषय है और नैतिकता का तकाजा है कि जेल जाने पर मंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में सांसद विधायकों को भी पब्लिक सर्वेन्ट बताए जाने पर कश्यप कहते हैं कि वह फैसला बहस का विषय है अभी यह तय नहीं है कि किस मुद्दे पर वे पब्लिक सर्वेन्ट माने जाएंगे।
सदस्य और मंत्री में अंतर नहीं
मौजूदा कानून में तो दोषी ठहराए जाने और सजा होने पर ही सांसद या विधायक अयोग्य होता है और उसकी सदस्यता जाती है। कश्यप यह भी कहते हैं कि सदस्य और मंत्री में अंतर नहीं है अगर कोई सदस्य रह सकता है तो मंत्री भी रह सकता है। मंत्रियों की नियुक्ति की संवैधानिक व्यवस्था देखी जाए तो राज्यपाल ही नियुक्ति करता है और राज्यपाल ही बर्खास्त करता है। ऐसे में सवाल यह कि क्या राज्यपाल को जेल में बंद दागी मंत्री को पद से बर्खास्त करने का अधिकार है।
राज्यपाल सीधे नहीं कर सकते किसी मंत्री को बर्खास्त
कश्यप का कहना है कि संविधान कहता है कि राज्यपाल मुख्यमंत्री की नियुक्ति करेंगे और मुख्यमंत्री की सलाह पर अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करेंगे। किसी मंत्री की बर्खास्तगी के मामले में राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह पर ही काम करेंगे। वह कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट भी पूर्व फैसलों में कह चुका है कि ऐसे मामलों में राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह पर काम करेंगे। ऐसे में राज्यपाल सीधे किसी मंत्री को बर्खास्त नहीं कर सकते है।
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